12 जुलाई: देवशयनी एकादशी अद्भुद अलौकिक दिव्य

हिन्‍दू कैलेंडर के अनुसार आषाढ़ मास के शुक्‍ल पक्ष की एकादशी को देवशयनी एकादशी कहा जाता है। ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार यह एकादशी हर साल जुलाई महीने में आती है। इस बार देवशयनी एकादशी 12 जुलाई को है। कहते हैं भगवान श्री हरि विष्णु क्षीरसागर में शयन करते हैं और चार माह बाद उन्हें उठाया जाता है।

चार महीने बाद देवउठान एकादशी के दिन गवान श्री हरि विष्णु उठेंगे। इस चार महीने के दौरान कोई भी शुभ कार्य नहीं किए जाते हैं। चार महीने बाद देवउठान एकादशी से सभी मंगल कार्य शुरू होंगे। इस दिन भगवान विष्णु का पूजन किया जाता है।

देवशयनी एकादशी की तिथि और शुभ मुहूर्त
एकादशी तिथि प्रारंभ: 12 जुलाई 2019 को रात 1 बजकर 02 मिनट से.
एकादशी तिथि समाप्त: 13 जुलाई 2019 को रात 12 बजकर 31 मिनट तक.
पारण का समय: 13 जुलाई 2019 को सुबह 06 बजकर 30 मिनट से सुबह 8 बजकर 33 मिनट तक

इस वर्ष इस एकादशी के दिन कई शुभ और सुंदर संयोग बने हैं जो इस एकादशी के महत्व को कई गुणा बढ़ा रहे हैं।

देवशयनी एकादशी कथा मंत्र और मुहूर्तहरिशयन एकादशी पर सर्वार्थ सिद्धि योग
इस वर्ष हरिशयन यानी देवशयनी एकादशी के दिन सर्वार्थ सिद्धि नामक शुभ योग भी बना है जो दोपहर 3 बजकर 57 मिनट से आरंभ होकर अगले दिन सुबह तक रहेगा। इस योग के कारण इस दिन भगवान विष्णु का पूजन व्रत अत्यंत शुभफलदायी होगा। अगर आप कोई धार्मिक या शुभ कार्य करना चाहते हैं या कोई नया काम शुरू करना चाहते हैं तो इस अवसर पर कर सकते हैं।

इस दिन करें ये काम
इस दिन सुबह सवेरे उठकर घर की साफ-सफाई करें। स्नान कर पवित्र जल का घर में छिड़काव करें। इसके बाद भगवान विष्णु को पीले वस्त्र पहनाएं। व्रत का संकल्प लें और व्रत कथा सुनें।

ज्योतिष के अनुसार कहा गया है कि इस रात भगवान का जागरण करना चाहिए। ऐसा माना जाता है कि देवशयनी एकादशी के दिन जो भक्त भगवान विष्णु का कमल पुष्पों से पूजन करते हैं वे एक तरह से तीनों लोकों के देवताओं के पूजन का फल पाते हैं।

देवशयनी एकादशी के दिन से चार माह के लिए देव शयन करते हैं और देवउठनी एकादशी के दिन जागते हैं। इन चार माहों में शुभ कार्य को वर्जित माना जाता है, देवशयनी एकादशी को बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है, इस दिन व्रत करने और कथा सुनने से व्यक्ति को मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है। ये व्रत कैसे शुरू हुआ, इसके पीछे क्या कथा है आइए आपको बताते हैं इसके बारे में…..

कथा :-

पुराणों के अनुसार, एक बार देवऋषि नारद ने ब्रह्माजी से इस एकादशी के विषय में जानने की उत्सुकता प्रकट की, तब ब्रह्माजी ने उन्हें बताया- सतयुग में मांधाता नामक एक चक्रवर्ती सम्राट राज्य करते थे। उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी। किंतु भविष्य में क्या हो जाए, यह कोई नहीं जानता। अतः वे भी इस बात से अनभिज्ञ थे कि उनके राज्य में शीघ्र ही भयंकर अकाल पड़ने वाला है

उनके राज्य में पूरे तीन वर्ष तक वर्षा न होने के कारण भयंकर अकाल पड़ा। इस दुर्भिक्ष (अकाल) से चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। धर्म पक्ष के यज्ञ, हवन, पिंडदान, कथा-व्रत आदि में कमी हो गई। जब मुसीबत पड़ी हो तो धार्मिक कार्यों में प्राणी की रुचि कहाँ रह जाती है। प्रजा ने राजा के पास जाकर अपनी वेदना की दुहाई दी।

राजा तो इस स्थिति को लेकर पहले से ही दुःखी थे। वे सोचने लगे कि आखिर मैंने ऐसा कौन- सा पाप-कर्म किया है, जिसका दंड मुझे इस रूप में मिल रहा है? इस कष्ट से मुक्ति पाने का कोई साधन करने के उद्देश्य से राजा सेना को लेकर जंगल की ओर चल दिए। वहाँ विचरण करते-करते एक दिन वे ब्रह्माजी के पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुँचे और उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। ऋषिवर ने आशीर्वचनोपरांत कुशल क्षेम पूछा। फिर जंगल में विचरने व अपने आश्रम में आने का प्रयोजन जानना चाहा।

तब राजा ने हाथ जोड़कर कहा- ’महात्मन्! सभी प्रकार से धर्म का पालन करता हुआ भी मैं अपने राज्य में दुर्भिक्ष का दृश्य देख रहा हूँ। आखिर किस कारण से ऐसा हो रहा है, कृपया इसका समाधान करें।’ यह सुनकर महर्षि अंगिरा ने कहा- ’हे राजन! सब युगों से उत्तम यह सतयुग है। इसमें छोटे से पाप का भी बड़ा भयंकर दंड मिलता है।

इसमें धर्म अपने चारों चरणों में व्याप्त रहता है। ब्राह्मण के अतिरिक्त किसी अन्य जाति को तप करने का अधिकार नहीं है जबकि आपके राज्य में एक शूद्र तपस्या कर रहा है। यही कारण है कि आपके राज्य में वर्षा नहीं हो रही है। जब तक वह काल को प्राप्त नहीं होगा, तब तक यह दुर्भिक्ष शांत नहीं होगा। दुर्भिक्ष की शांति उसे मारने से ही संभव है।’

किंतु राजा का हृदय एक निरपराध शूद्र तपस्वी का शमन करने को तैयार नहीं हुआ। उन्होंने कहा- ’हे देव मैं उस निरपराध को मार दूँ, यह बात मेरा मन स्वीकार नहीं कर रहा है। कृपा करके आप कोई और उपाय बताएँ।’ महर्षि अंगिरा ने बताया- ’आषाढ़ माह के शुक्लपक्ष की एकादशी का व्रत करें। इस व्रत के प्रभाव से अवश्य ही वर्षा होगी।’ राजा अपने राज्य की राजधानी लौट आए और चारों वर्णों सहित पद्मा एकादशी का विधिपूर्वक व्रत किया। व्रत के प्रभाव से उनके राज्य में मूसलधार वर्षा हुई और पूरा राज्य धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया, तभी से ये व्रत किया जाने लगा ।

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