आज विशेष :-आज ब्रह्म योग में तांबा दान करना शुभ फलदायी होता है

आज विशेष :- आज ब्रह्म योग में तांबा दान करना शुभ फलदायी होता है शनिवार को लोहे की शनि देव की मूर्ति का गंध पुष्पादि से पूजन करके व्रत करें तो शनि जनित समस्त दोष दूर होते है तथा सुख-संपत्ति बढ़ती है चित्रा नक्षत्र में इंद्र देव की विधि-विधान से गंध फल पुष्प दूध दही धूप व दीप आदि से पूजा कर व्रत करें तो ऐश्वर्य एवं सुख-संपत्ति मिलती है

* शनिवार व्रत कथा :-

* पूजा विधि :-

इस दिन शनिदेव की पूजा होती है। काला तिल, काला वस्त्र, तेल, उड़द शनिदेव को अति प्रिय है, इसलिए इनके द्वारा शनिदेव की पूजा की जाती है। शनि स्तोत्र का पाठ भी विशेष लाभदायक सिद्ध होता है।

* व्रत की कथा :-

एक समय सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु इन सब ग्रहों मे आपस में विवाद हो गया कि हममे सबसे बड़ा कौन है? सब अपने आपको बड़ा कहते थे। जब आपस मे कोई निश्चय न हो सका तो सब आपस मे झगड़ते हुए देवराज इन्द्र के पास गए और कहने लगे कि आप सब देवताओ के राजा है इसलिए आप हमारा न्याय करके बतलाएं हम नवो ग्रहो मे कौन सबसे बड़ा ग्रह कौन है? देवराज इन्द्र देवातओ का प्रश्न सुनकर घबरा गए और कहने लगे कि मुझमे यह सामर्थ्य नही है कि मै किसी को बड़ा या छोटा बतला सकूँ।

मै अपने मुख से कुछ नहीं कह सकता। हाँ एक उपाय हो सकता है। इस समय पृथ्वी पर राजा विक्रमादित्य दूसरो के दुःखो का निवारण करने वाले है इसलिए आप सब मिलकर उन्ही के पास जाएँ, वही आपके विवाद का निवारण करेंगे। सभी ग्रह देवता देवलोक से चलकर भू-लोक मे जाकर राजा विक्रमादित्य की सभा मे उपस्थित हुए और अपना प्रश्न राजा के सामने रखा । राजा विक्रमादित्य ग्रहों की बात सुनकर गहरी चिन्ता मे पड़ गए कि मै अपने मुख से किसको बड़ा और किसको छोटा बतलाऊँगा? जिसको छोटा बतलाऊंगा वही क्रोध करेगा ।

उनका झगड़ा निपटाने के लिए उन्होने एक उपाय सोचा और सोना, चाँदी, काँसा, पीतल, सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक और लोहा नौ धातुओ के नौ आसन बनवाए । सब आसनो को कम से जैसे सोना सबसे पहले और लोहा सबसे पीछे बिछाया गया । इसके पश्चात् राजा ने सब ग्रहो से कहा कि आप सब अपना-अपना आसन ग्रहण करें, जिसका आसन सबसे आगे वह सब से बड़ा और जिसका सबसे पीछे वह सबसे छोटा जानिए ।

क्योकि लोहा सबसे पीछे था और शनिदेव का शासन था इसलिए शनिदेव ने समझ लिया कि राजा ने मुझको सबसे छोटा बना दिया है। इस निर्णय पर शनिदेव को बहुत क्रोध आया । उन्होने कहा कि राजा तू मुझे नही जानता । सूर्य एक राशि पर एक महीना, चन्द्रमा सवा दो महीना दो दिन, मँगल डेढ महीना, बृस्पति तेरह महीने, बुध और शुक्र एक-एक महीने विचरण करते है । परन्तु मै एक राशि पर ढाई वर्ष से लेकर साढे सात वर्ष तक रहता हूँ।

बड़े-बड़े देवताओ को भी मैने भीषण दुःख दिया है। राजन् सुनो ! श्रीरामचन्द्रजी को साढे साती आई और उन्हें वनवास हो गया। रावण पर आई तो राम ने वानरो की सेना लेकर लंका पर चढाई कर दी और रावण के कुल का नाश कर दिया।हे राजन् ! अब तुम सावधान रहना। राजा विकमादित्य ने कहा- जो भाग्य में होगा. देखा जाएगा। इसके बाद अन्य ग्रह तो प्रसन्नता के साथ अपने-अपने स्थान पर चले गए परन्तु शनिदेव क्रोध के साथ वहाँ से चले गए । कुछ काल व्यतीत होने पर जब राजा विक्रमादित्य को साढे साती की दशा आई तो शनिदेव घोड़ो के सौदागर बनकर अनेक घोड़ो के सहित राजा विक्रमादित्य की राजधानी मे आए।

जब राजा ने धोड़ो के सौदागर के आने की खबर सुनी तो अपने अश्वपाल को अच्छे-अच्छे घोड़े खरीदने की आज्ञा दी। अश्वपाल ऐसी अच्छी नस्ल के घोड़े देखकर और एक अच्छा सा घोड़ा चुनकर सवारी के लिए उस पर चढे। राजा के पीठ पर चढते ही घोड़ा तेजी से भागा। घोड़ा बहुत दूर एक घने जंगल मे जाकर राजा को छोड़कर अन्तर्ध्यान हो गया। इसके बाद राजा विक्रमादित्य अकेला जंगल मे भटकता फिरता रहा। भूख-प्यास से दुःखी राजा ने भटकते-भटकते एक ग्वाले को देखा। ग्वाले ने राजा को प्यास से व्याकुल देखकर पानी पिलाया।

राजा की अंगुली मे एक अंगूठी थी। वह अंगूठी उसने निकाल कर प्रसन्नता के साथ ग्वाले को दे दी और स्वयं शहर की ओर चल दिया। राजा शहर मे पहुंचकर एक सेठ की दुकान पर जाकर बैठ गया और अपने आपको उज्जैन का रहने वाला तथा अपना नाम वीका बतलाया। सेठ ने उसको एक कुलीन मनुष्य समझकर जल आदि पिलाया। भाग्यवश उस दिन सेठ की दुकान पर बहुत अधिक बिक्री हुई तब सेठ उसको भाग्यवान् पुरुष समझकर भोजन के लिएअपने साथ घर ले गया। भोजन करते समय राजा विक्रमादित्य ने एक आश्चर्यजनक घटना देखी, जिस खूटी पर हार लटक रहा था वह खंटी उस हार को निगल रही थी।

भोजन के पश्चात् जब सेठ कमरे मे आया तो उसे कमरे मे हार नही मिला। उसने यही निश्चय किया कि सिवाय वीका के कोई और इस कमरे मे नही आया, अत: अवश्य ही उसी ने हार चोरी किया है। परन्तु वीका ने हार लेने से इन्कार कर दिया। इस पर पाँच सात आदमी उसको पकड़कर नगर कोतवाल के पास ले गए। फौजदार ने उसको राजा के सामने उपस्थित कर दिया और कहा कि यह आदमी भला प्रतीत होता है, चोर मालूम नही होता, परन्तु सेठ का कहना है कि इस के सिवाय और कोई घर मे आया ही नही, इसलिए अवश्य ही चोरी इस ने की है। राजा ने आज्ञा दी की इस के हाथ पैर काटकर चौरंगिया किया जाए।

तुरन्त राजा की आज्ञा का पालन किया गया और वीका के हाथ पैर काट दिये गए। कुछ काल व्यतीत होने पर एक तेली उसको अपने घर ले गया और उसको कोल्हू पर बिठा धिया। वीका उस पर बैठा हुआ अपनी जबान से बैल हांकता रहा। इस काल मे राजा की शनि की दशा समाप्त हो गई। वर्षा ऋतु के समय के वह मल्हार राग गाने लगा। यह राग सुनकर उस शहर के राजा की कन्या मनभावनी उस राग पर मोहित हो गई राजकन्या ने राग गाने वाले की खबर लाने के लिए अपनी दासी को भेजा। दासी सारे शहर मे घूमती रही। जब वह तेली के घर के निकट से निकली तब क्या देखती है कि तेली के घर मे चौरंगिया राग गा रहा।

दासी ने लौटकर राजकुमारी को सब वृतांत सुना दिया। बस उसी क्षण राजकुमारी मनभावनी ने अपने मन में यह प्रण लिया चाहे कुछ भी हो। मैने चौरंगिया के साथ ही विवाह करना है। प्रात: काल होते ही जब दासी ने राजकुमारी मनभावनी को जगाना चाहा तो राजकुमारी अनशन व्रत लेकर पड़ी रही। दासी ने रानी के पास जाकर राजकुमारी के न उठने का वृतांत कहा। रानी ने वहाँ आकर राजकुमारी को जघाया और उसके दुःख का कारण पूछा। राजकुमारी ने कहा कि माताजी मैने यह प्रण कर लिया है कि तेली के घर मे जो चौरंगिया है मै उसी के साथ विवाह करूंगी। माता ने कहा- पगली, तू यह क्या कह रही है?

तुझे किसी देश के राजा के साथ परिणाया जाएगा। कन्या कहने लगी कि माताजीमै अपना प्रण कभी नही तोडूंगी। माता ने चिन्तित होकर यह बात महाराज को बताई। महाराज ने भी आकर उसे समझाया कि मै अभी देश- देशान्तर मे अपने दूत भेजकर सुयोग्य, रूपवान एवं बड़े-से-बड़े गुणी राजकुमार के साथ तुम्हारा विवाह करूंगा। ऐसी बात तुम्हे कभी नही विचारनी चाहिए। परन्तु राजकुमारी ने कहा- “पिताजी मै अपने प्राण त्याग दूंगी परन्तु किसी दूसरे से विवाह नही करूँगी।” यह सुनकर राजा ने क्रोध से कहा यदि तेरे भाग्य मे ऐसा ही लिखा है

तो जैसी तेरी इच्छा हो वैसा ही कर। राजा ने तेली को बुलाकर कहा कि तेरे घर मे जो चौरंगिया है उसके साथ साथ मै अपनी कन्या का विवाह करना चाहता हूँ। तेली ने कहा महाराज यह कैसे हो सकता है? राजा ने कहा कि भाग्य के लिखे को कोई नही टाल सकता। अपने घर जाकर विवाह की तैयारी करो। राजा ने सारी तैयारी कर तोरण और बन्दनवार लगवाकर राजकुमारी का विवाह चौरंगिया के साथ कर दिया। रात्रि को जब विक्रमादित्य और राजकमारी महल मे सोये तप आधी रात के समय शनिदेव ने विक्रमादित्य को स्वप्न दिया और कहा की राजा मुझको छोटा बतलाकर तुमने कितना दुःख उठाया? राजा ने शनिदेव से क्षमा मांगी ।

शनिदेव ने राजा को क्षमा कर दिया और प्रसन्न होकर विक्रमादित्य को हाथ-पैर दिये। तब राजा विक्रमादित्य ने शनिदेव से प्रार्थना की – “महाराज मेरी प्रार्थना स्वीकार करें, जैसा दुःख आपने मुझे दिया है ऐसा और किसी को न दें।” शनिदेव ने कहा- तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार है, जो मनुष्य मेरी कथा सुनेगा या कहेगा उसको मेरी दशा में कभी भी दु:ख नही होगा जो नित्य मेरा ध्यान करेगा या चीटियो को आटा डालेगा उसके सब मनोरथ पूर्ण होगे । इतना कह कर शनिदेव अपने धाम को चले गए। जब राजकुमारी मनभावनी की आँख खुली और उसने चौरंगिया को हाथ-पाँव साथ देखा तो आश्चर्यचकित हो गई उसको देखकर राजा विक्रमादित्य ने अपना समस्त हाल कहा कि मै उज्जैन का राजा, विक्रमादित्य हूँ। यह घटना सुनकर राजकुमारी अत्यन्त प्रसन्न हुई।

प्रात: काल राजकुमारी से उसकी सखियों ने पिछली रात का हाल- चाल पूछा तो उसने अपने पति का समस्त वृतांत कह सुनाया। तब सबने प्रसन्नता प्रकट की और कहा कि ईवर ने आपकी मनोकामना पूर्ण कर दी । जब उस सेठ ने यह घटना सुनी तो वह राजा विक्रमादित्य के पास आया और उनके पैरो पर गिरकर क्षमा मांगने लगा कि आप पर मैने चोरी का झूठा दोष लगाया । आप जो चाहे मुझे दण्ड दे । राजा ने कहा- मुझ पर शनिदेव का क्रोप था इसी कारण यह सब दुःख मुझेको प्राप्त हुए. इसमे तुम्हारा कोई दोष नही है ।

तुम अपने घर जाकर अपना कार्य करो, तुम्हारा कोई अपराध नही । सेठ बोला- “महाराज मुझे तभी शान्ति मिलेगी जब आप मेरे घर चलकर प्रीतिपूर्वक भोजन करेंगे”। राजा ने कहा जैसी आपकी इच्छा हो वैसा ही करें। सेठ ने अपने घर जाकर अनेक प्रकार के सुन्दर व्यंजन बनवाए और राजा विक्रमादित्य को प्रीतिभोज दिया। जिस समय राजा भोजन कर रहे थे एक आश्चर्यजनक घटना घटती सबको दिखाई दी। जो खूटी पहले हार निगल गई थी, वह अब हार उगल रही थी। जब भोजन समाप्त हो गया तो सेठ ने हाथ जोड़कर बहुत सी मौहरें राजा को भेंट की और कहा- “मेरी श्रीकंवरी नामक एक कन्या है

उसका आप पाणिग्रहण करें। राजा विक्रमादित्य ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। तब सेठ ने अपनी कन्या का विवाह राजा के साथ कर दिया और बहुत सा दान-दहेज आदि दिया। कुछ दिन तक उस राज्य में निवास करने के पचात् राजा विक्रमादित्य ने अपने श्वसुर राजा से कहा कि अब मेरी उज्जैन जाने की इच्छा है। कुछ दिन बाद विदा लेकर राजकुमारी मनभावनी, सेठ की कन्या तथा दोनो जगह से मिला दहेज मे प्राप्त अनेक दास-दासी, रथ और पालकियो सहित राजा विक्रमादित्य उज्जैन की तरफ चले। जब वे शहर के निकट पहुंचे और पुरवासियो ने राजा के आने का सम्वाद सुना तो उज्जैन की समस्त प्रजा अगवानी के लिए आई। प्रसन्नता से राजा अपने महल मे पधारे।

सारे नगर में भारी उत्सव मनाया गया और रात्रि को दीपमाला की गई। दूसरे दिन राजा ने अपने पूरे राज्य मे यह घोषणा करवाई कि शनि देवता सब ग्रहो मे सर्वोपरि है । मैने इनको छोटा बतलाया इसी से मुझको यह दुःख प्राप्त हुआ। इस प्रकार सारे राज्य मे सदा शनिदेव की पूजा और कथा होने लगी। राजा और प्रजा अनेक प्रकार के सुख भोगती रही। जो कोई शनिदेव की इस कथा को पढ़ता या सुनता है, शनिदेव की कृपा से उसके सब दुःख दुर हो जाते है। व्रत के दिन शनिदेव की कथा को आवश्य पढना चाहिए।

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